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भारतीय साहित्य

बहुत भाषाओं में लिखें पर भी भारतीय साहित्य में - एक है - यह साहित्य अकादमी का अपने जन्मकाल से ही नारा रहा । भारत में 18 स्वीकृत राजकीय भाषाएं हैं और प्रत्येक में समृद्ध और जीवन्त साहित्य है । ये भाषाएं चार प्रमुख भाषा परिवार की हैं - आर्य , द्रविड़ , चीनी तिब्बतीय , अथवा ( मंगोलिया ) और आस्ट्रिक । किन्तु प्रमुख भाषाएं भारोपीय परिवार ( 11 ) और द्रविड़ परिवार ( 4 ) में आती हैं , ये साहित्यिक भाषायें भी हैं । साहित्य अकादमी ( साहित्य की राष्ट्रीय अकादमी ) ने इन 15 भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी और 6 अन्य भारतीय भाषाओं ( डोगरी , कोंकणी , मणिपुरी , मैथिली , नेपाली और राजस्थानी ) को भी अपने कार्यकलापों के लिए स्वीकृत किया है । 22 भारतीय साहित्य है , जिसे साहित्य अकादमी मान्यता देती है । साहित्य की प्राचीनता की दृष्टि से संस्कृत के बाद तमिल का नाम आता है । दक्षिण में तमिल और उत्तर में उर्दू को छोड़कर शेष सभी भारतीय भाषाओं का जन्म भारतीय इतिहास के लगभग एक ही समय में हुआ है । उर्दू की केवल पांच सौ वर्ष पुरानी वंश परम्परा है । असमिया यह भारतीय आर्यभाषा परिवार की भाषा है । इसका उद्भव प्राच्य मगधी अपभ्रंश से हुआ । प्रभाव इस पर तिब्बती और बर्मन भाषाओं का भी है । असम प्रदेश के मूल निवासियों की भाषा रवासिया , बड़ो , अहोम , संथाली के भी कुछ शब्द इसमें मिल गए । असमिया ब्रज की तरह कोमल भाषा है । असमिया का विकास सातवीं शताब्दी के पश्चात एक बोली के रूप में हुआ । दसवीं शताब्दी के अंतिम चरण तक इसका निर्माण पूरी तरह से हो चुका था । आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक इसका साहित्यिक विकास का पहला चरण माना जाता है । दूसरा चरण 1201 से 1650 तक और तीसरा 1651 से 1850 तक । 1851 से आज तक आधुनिक काल माना जाता है । पहले चरण को आदिकाल कहते हैं । इस दौरान लोक गीत , लोक कथाएं , लोकोक्तियां , सूक्तियां और डाक के वचन हैं जिन्हें साहित्यिक विकास की प्रारंभिक सीढ़ी कहा जा सकता है । ' बुद्धगान ओ दोहा , महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री द्वारा प्रकाशित एक उल्लेखनीय ग्रंथ है । दूसरा चरण मध्यकाल का पूर्वार्द्ध कहलाता है । बारहवीं शताब्दी के अंत तक असम के प्राचीन हिन्दू राज्य का अंत हो गया । कामता राजवंश प्रारंभ हुआ । हेम सरस्वती और हरिहर विप्र इस राज्य में प्रमुख दरबारी कवि थे । दुर्लभ नारायण ने तो राज्य से सम्मानित होकर ' प्रहलाद चरित ' , ' लवकुश युद्ध ' और ' बब्रुवाहन युद्ध ' की रचना की । कवि सरस्वती ने जयद्रथ वध ' की रचना की । चौदहवीं शताब्दी के श्रेष्ठ कवि माने गए माधव कंदलि । इन्होंने वाल्मीकि रामायण के पांच कांडों का असमी भाषा में पद्यानुवाद किया । असमिया में यह अनूदित रामायण तुलसी की मानस की तरह लोकप्रिय है । इस कवि की दूसरी उल्लेखनीय रचना है- ' देवजित ' । यह कृष्ण से संबंधित रचना है । दुर्गावर और पीतांबर भी इस काल के प्रमुख कवियों में से हैं । इनकी रचनाएं क्रमशः गीति रामायण ' और ' उषा परिणय उल्लेखनीय हैं । पंद्रहवीं - सोलहवीं शताब्दी के असमी कवियों में शंकरदेव प्रमुख हैं । वह धर्मप्रचारक साहित्यकार थे । ' कीर्तन घोषा ' इनका सर्वप्रमुख ग्रंथ है । कतिपय संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद भी इन्होंने किया । भागवती धर्म के प्रचारक के रूप में इनका अलग महत्व है । पारिजात हरण , रूक्मणी हरण , कालिय दमन , रामविजय , पत्नी प्रसाद शीर्षक से नाटक भी रचे । इनकी रचनाओं में बर गीतों का महत्व अधिक हैं । शंकरदेव के बाद वैष्णव कवि माधवदेव आते हैं । इनकी रचना ' घोषा ' में सूर शैली में 1000 पद संग्रहीत हैं । ' घोषा ' के अतिरिक्त 14 और ग्रंथ इन्होंने लिखे । राम सरस्वती और श्रीधर कंदलि अन्य प्रमुख कवियों में से हैं । तीसरे चरण में मुख्यत : ' बुरंजी ' अथवा ऐतिहासिक साहित्य रचा गया । कविराज चक्रवर्ती के अनुवाद और राजेश्वर सिंह द्वारा लिखित नाटक ' कीचक वध | कवि शेखर भट्टाचार्य ने ' हरिवंश ' की रचना की । कामरूप बुरंजी , जयंतीया बुरंजी , बेलिमार बुरंजी आदि इस समय की रचनाओं में प्रमुख ऐतिहासिक ग्रंथ हैं । अंग्रेजों का पूर्णाधिकार असम पर 1854 के आसपास हुआ । रेवरेड ब्राउन और टी . कोटट द्वारा प्रकाशित बच्चों के लिए पहली पुस्तक , ' अरुणोदय ' पत्रिका ही नहीं , अंग्रेजी से अनुवाद भी उल्लेखनीय हैं । इन्होंने 1848 में ही ' द पिलग्रिम्स प्रोग्रेस का असमिया अनुवाद ' जात्रीकार र जात्रा ' कर दिखाया । राजा राममोहन राय के समकालीन आनंदराम फुकन की काव्य रचनाओं ने नये युग का सूत्रपात किया । ' जोनाकी ' साहित्यिक पत्रिका के जरिए लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ , चंद्रकुमार अग्रवाल , हेमचंद्र गोस्वामी और पद्यनाथ बरुआ ने नये युग का सूत्रपात किया । आधुनिक असमिया साहित्य के जन्मदाता लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ ही माने जाते हैं । इनकी सबसे लोकप्रिय हास्य रचना है कृपावर बरबरूआ काकतर रोपोलो । इनकी कविताएं प्रेम प्रकृति देशभक्ति की विविधता लिए हैं । निबंध , कहानी , नाटक और लोकशैली की इनकी अन्य रचनाएं भी महत्वपूर्ण हैं । इसी काल के चन्द्रकुमार अग्रवाल प्रेम , प्रकृति व सौंदर्य के गायक थे । राष्ट्रीय काव्य रचनाओं के लिए कमलाकांत भट्टाचार्य और दार्शनिक काव्य रचनाओं के लिए दुर्गेश्वर शर्मा व नीलमणि फुकन उल्लेखनीय हैं । हेमचन्द्र गोस्वामी ने असम का इतिहास लिखने में एडवर्ड गेट की सहायता ही नहीं की बल्कि अनेक मूल्यवान पांडुलिपियों को सुरक्षित भी कराया । अंबिकागिरि चौधरी पत्रकार क्रांतिकारी कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं । 1915 में प्रकाशित ' तुमि इनका पहला प्रतीकवादी काव्य संग्रह माना जाता है । रघुनाथ चौधरी , नलिनी बाला , यतींद्रनाथ दुबरा , हितेश्वर बरबरुआ देवकांत बरुआ आदि इस युग के प्रमुख कवि रचनाकार हैं । धमश्वरी देवी की रचनाएं भक्तिप्रधान हैं । अमूल्य बरुआ , अब्दुल मलिक , नवकांत बरुआ , तिलकदास , हेमकांत बरुआ आदि मध्यकाल पंद्रहवीं सोलहवीं शताब्दी के असमी कवियों में शंकरदेव प्रमुख हैं । वह धर्मप्रचारक साहित्यकार थे । ' कीर्तन घोषा ' इनका सर्वप्रमुख ग्रंथ है । कतिपय संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद भी इन्होंने किया । भागवती धर्म के प्रचारक के रूप में इनका अलग महत्व है । • पारिजात हरण , रूक्मणी हरण , कालिय दमन , रामविजय , पत्नी प्रसाद शीर्षक से नाटक भी रचे इनकी रचनाओं में बर गीतों का महत्व अधिक हैं । शंकरदेव के बाद वैष्णव कवि माधवदेव आते हैं की गणना प्रगतिवादी रचनाकारों में होती हैं । नाटकों की भी असमिया में अच्छी परंपरा रही है लेकिन उपन्यास प्रारंभ हुए बीसवीं शताब्दी में आधुनिक उपन्यास के प्रारंभ का श्रेय असमिया में रजनीकांत बारदोलई को ही है । दंडीनाथ कलिता , दवेचंद्र तालुकदार के बाद वीणा बरुआ , नवकांत बरुआ , हितेश डेका , योगेश चंद्र दास , राधिका मोहन गोस्वामी , बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य आदि आते हैं । कहानी की दृष्टि से नगेंद्र नारायण चौधरी , त्रेलोक्यनाथ गोस्वामी और लक्ष्मी शर्मा के बाद दीनानाथ शर्मा , हलीराम छगनलाल जैन आते हैं । प्रगतिवादी कहानी योगेशचन्द्र दत्त , प्रीति भट्टाचार्य , अब्दुल मलिक से गति पाती है । अन्य विधाओं की तरह निबन्ध लेखन भी प्रारंभिक रचनाकारों ने किया जरूर लेकिन सत्यनाथ बरा के निबंधों से असमिया निबंध को अपनी पहचान मिली । वाणीकांत काकती , विरंचिकुमार बरुआ के बाद इस विधा को आगे बढ़ाया- प्रफुल्ल दत्त गोस्वामी , हरिनारायण दत्त , कालिराम मेधी और उपेन्द्र लेखारू ने । बीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य आधुनिक असमिया साहित्य के प्रमुख रचनाकारों में से थे जिन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का पुरस्कार भी प्रदान किया गया । कथाकारों में शैलेंद्रकुमार भट्टाचार्य , कैलाश शर्मा , लक्ष्मीनंदन बारा , अपूर्वशर्मा तो कवियों में नीलमणि फुकन , हरेकृष्ण डेका , रफीकुल हुसैन , अनीस उज्जमान व रवींद्र सरकार राष्ट्रीय पहचान बना चुके हैं । उड़िया उड़िया विकास के आदिकाल का समय दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक माना गया है । 
मध्यकाल पन्द्रहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक और आधुनिक काल उन्नीसवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है । बौद्ध गान और दोहा में चार पद ऐसे हैं जिनपर तत्कालीन उड़िया प्रभाव है । बौद्धों के बाद कलिंग में शैव प्रभाव रहा । इससे संबंधित महालिंगेश्वर , भुखलिंगेश्वर और भुवनेश्वर नरसिंह देव के शिलालेख क्रमश : 990 ई .. 1036 ई . और 1249 ई . के हैं । तेरहवीं शताब्दी की ' कलसा चउतिशा नामक काव्य में शिव - पार्वती विवाह का वर्णन मिलता है । चौदहवीं शताब्दी में रुद्र सुधानिधि ग्रंथ नारायणानंद अवधूत स्वामी रचित है । यह रचना गद्य में उपन्यास के ढंग की है । 
के जन्मदाता माने जाते हैं । ' बुद्धावतार ' जैसा काव्यग्रंथ , संपूर्ण रामायण और महाभारत का अनुवाद तो उन्होंने दिया ही . उत्कल भ्रमण , पुष्पमाला उपहार , लछमा , आत्मजीवन चरित जैसी कालजयी कृतियां भी दीं । उनके बाद यह प्रवृत्ति विकास पाती है - राधानाथ राय में मधुसूदन राव और राधानाथ की रचनाओं के प्रकाशन ने उड़िया साहित्य में बहुत कुछ नया जोड़ा । अंग्रेजी , संस्कृत रचनाओं के अनुवाद भी इस काल में हुए । मधुसूदन राव की कुछ रचनाओं की प्रशंसा तो गुरुदेव रबीदनाथ ने भी की है । निशीथ चिंता , उत्कल पिंड , आभोय गिरि , हेममाला , हिमाचल उदया उत्सव , उत्कलगाथा , संगीत माला आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं । वह खण्डकाव्य , भावगीत , सानेट , नीतिकाव्य , लघुकथा और निबंध भी लिखते थे । बाद के अन्य कवियाँ में गंगाधर मेहेर चिन्तामणि महान्ति , नंदकिशोर बल भी उल्लेखनीय है । 1930 के बाद उड़िया के प्रारंभिक रचनाकारों का प्रभाव कुछ कम हुआ अब गोपबंधु दास , गोदावरी मिश्र , कुंतलाकुमारी देवी लक्ष्मीकांत महापात्र चंद्रमणि दास . शचि राउत राय , अनन्त पटनायक कालिंदी पाणिग्रही , राधामोहन गणनायक आदि प्रमुख हो गए । गोपबंधु राष्ट्रीय आंदोलन में बाकायदा सक्रिय थे । वे गद्यकार व पत्रकार थे । असहयोग आंदोलन में बंदी बनाए गए तो बन्दी ए आत्मकथा लिख डाली । भारत माता कविता भी खूब लोकप्रिय हुई । रविबाबू के ' सबुजदल ' की तर्ज पर युगवीणा ' का प्रकाशन उड़िया के रचनाकारों ने प्रारंभ किया । बंगला अनुकरण में नव्य रचनाएं उड़िया में आई । सबुजदल के बाद आए प्रभातवादी । नए विचार को लेकर शचि राउत राय , मनमोहन मिश्र व अनंत पटनायक सरीखे प्रगतिवादी कवि सामने आए । विद्युत प्रभा देवी इस काल की उल्लेखनीय कवियत्री हैं । नाटककार पद्मनाभ नारायण देव , नाटक व उपन्यासकार कामपाल मिश्र ने प्रारंभिक दौर में महत्वपूर्ण रचनाएं दीं । बाद में रामशंकर राय , लाला जगमोहन , अश्विनी कुमार , कुमार घोष ने उल्लेखनीय काम कर उड़िया नाट्य परंपरा को समृद्ध किया । बाद में भंजह किशोर पट्टनायक रामचन्द्र मिश्र , मनोरंजन दास , नरसिंह महापात्र व गोपाल क्षत्राई उल्लेखनीय नाटककार रहे । " माटीर माणिष ( कालिंदी चरण पाणिग्रही ) से पहले सबुजदल के लेखकों का संयुक्त प्रयास ही हो पाया । बाद में गोपीनाथ महान्ती , कुंतलाकुमारी देवी , नंदकिशोर आदि ने उपन्यास लेखन किया । उड़िया के प्रबंध लेखको व समालोचकों में नीलकंठ दास मधुसूदन , चिंतामणि , रत्नाकर पति , विश्वनाथ , मृत्युंजय रथ , शशिभूषण राव सरीखे उल्लेखनीय कई साहित्यकर्मी हैं । गोपीनाथ महान्ती व . स . राउतराय को तो ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया । चंद्रशेखर रथ , रवि पटनायक जगदीश महान्ती वसंत कुमार शतपथी जैसे कथाकार व रमाकांत रथ , जमना प्रसाद दास , सीताकांत महापात्र , सौभाग्य कुमार मिश्र राजेन्द्र किशोर पांडा जैसे आधुनिक कवि उड़िया को नई दिशा दे रहे हैं । अकेली कवियत्री सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के कवियों में श्रीधरवास , विष्णुदास , रघुनाथ , धनंजय भंज , कान्हूदास और दीनकृष्ण प्रमुख हैं । इस काल में उपेंद्रभंज को अद्भुत काव्य प्रतिभा का धनी बताया गया है । रानी निशंक राय इस काल की अकेली कवियित्री है । कवि गोपाल कृष्ण उड़िया काव्य के मधुर गायक के रूप में स्मरणीय हैं । सरलाहास का ' महाभारत ' जो वस्तुतः ' महाभारत ' का अनुवाद ही नहीं है , एक पदमय रचना है । इसी कवि की ' बिलंका रामायण चंडी पुराण , जैसी कृतियां भी उल्लेखनीय हैं । चौदहवीं शताब्दी के अन्य कविपंचक प्रख्यात हुए - बलराम दास , जगन्नाथ दास , अनंत दास , यशवंत दास , पच्युतानंद दास । बलराम दास ने उड़िया में पहली रामायण लिखी । मध्यकाल में वैष्णव काव्य की अलग ही धारा है । जयदेव के ' गीत गोविन्द का प्रभाव तो यहां नजर आता ही है , उड़िया समाज का दावा है कि जयदेव मूलतः ओड़िया ही थे । इस प्रभाव में वैष्णव भक्ति काव्य सत्रहवीं शताब्दी तक लिखा जाता रहा । शिशुशंकर दास , कपिलेश्वर दास , लक्ष्मण महान्ति , हरिहर नायक , कार्तिक दास , ताप राय , मधुसूदन , रामचन्द्र पट्टनायक आदि अनेक उत्कृष्ट कवि हुए । सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में रामचन्द्र पट्टनायक ने हारावती नामक एक प्रबंध काव्य की रचना की । वृन्दावनदास ने गीत गोविन्द का अनुवाद , मधुसूदन ने ' नल चरित्र और सदाशिव राव ने हरिवंश पुराण ' का उड़िया में अनुवाद किया । सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के कवियों में श्रीधरदास , विष्णुदास , रघुनाथ , धनंजय भंज , कान्हूदास और दीनकृष्ण प्रमुख हैं । इस काल में उपेंद्रभंज को अद्भुत काव्य प्रतिभा का धनी बताया गया है । रानी निशंक राय इस काल की अकेली कवियित्री है । कवि गोपाल कृष्ण उड़िया काव्य के मधुर गायक के रूप में स्मरणीय है । इस काल में पुराणों पर आधारित रचना करने वाले कई कवि हुए । इनमें गौरांगदास , पीतांबरदास , जयसिंह , रामदास , गंगापाणि , बलभद्र भंगराज आदि उल्लेखनीय हैं । धर्मप्रचारकों की दृष्टि से आरक्षित दास और भीमाभाई प्रमुख हैं । हिन्दु मुस्लिम ऐक्य को आधार बनाकर ऐसे ग्रंथों की रचना भी इस काल में हुई जो पाला के नाम से जानी गई । सत्यनारायण और सत्यपीट पूजा का इनमें समन्वय है । उड़िया में 16 पालाओं की रचना हुई । 1857 की राज्य क्रांति के बाद उड़ीसा में भी ईसाई धर्मप्रचारक आ गए और अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत हो गई । लगभग इसी वक्त फकीर मोहन सेवापति का आगमन हुआ । समाज सुधारक तो वह थे ही प्राचीन साहित्य के प्रेमी होने के साथ - साथ पाश्चात्य साहित्य के विरोधी भी नहीं थे । दोनों साहित्यों के सूक्ष्म अध्ययन के बाद उन्होंने एक नवीन शैली को जन्म दिया । वह आधुनिक उड़िया साहित्य