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भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि और भारत में राष्ट्रीय जागृति ( BACKGROUND OF THE INDIAN NATIONAL MOVEMENT, AND NATIONAL AWAKENING IN INDIA)

 

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि और भारत में राष्ट्रीय जागृति   ( BACKGROUND OF THE INDIAN NATIONAL MOVEMENT, AND NATIONAL AWAKENING IN INDIA) 

  भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन तथा भारत में राष्ट्रीय जागरण का प्रारंभ और विकास आधुनिक भारत के इतिहास का एक रोचक अध्ययन है । भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन किसी दलविशेष या वर्गविशेष द्वारा संचालित आंदोलन नहीं है , वरन राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए भारतीय जनता के संग्राम तथा अँगरेजी विस्तारवादी नीति एवं भारतीयों के प्रति अँगरेजों की ज्यादतियों की प्रतिक्रिया का परिणाम है । भारत में राष्ट्रवाद का उदय ब्रिटिश उपनिवेशवाद की चुनौती के रूप में हुआ । अँगरेजी राज्य की ज्यादती एवं गुलामी से मुक्ति पाने के लिए यह भारतीयों द्वारा संचालित तथा संगठित आंदोलन है । इस आंदोलन का काल 1857 ई . से 15 अगस्त 1947 तक है । राष्ट्रीय आंदोलन के इस काल का अध्ययन भारतीय छात्रों को राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता के महत्त्व का बोध कराता है । आज जब देशांतर्गत अनेक राष्ट्रविरोधी तत्त्व सक्रिय हैं और वे सांप्रदायिक एवं क्षेत्रीय भावनाओं तहत राष्ट्रीय एकता पर आघात कर रहे हैं , राष्ट्रीय आंदोलन का अध्ययन उन्हें राष्ट्र के लिए त्याग की शिक्षा देता है और उनमें देशभक्ति तथा देशप्रेम की भावना भरता है ।

 भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद और उसके विभिन्न चरण ( British Colonialism in India and its Different Phases ) 

उपनिवेशवाद क्या है- -साधारण बोलचाल की भाषा में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को पर्यायवाची मान लिया जाता है , क्योंकि इन दोनों के बीच का अंतर इतना कम है कि प्रायः एक के लिए दूसरे का प्रयोग कर दिया जाता है । राजनीतिशास्त्र के अधिकांश विद्वानों ने भी इनमें कोई भेद नहीं किया है । उदाहरण के लिए , हॉब्सन ने साम्राज्यवाद - विषयक अपनी पुस्तक में साम्राज्यवाद की जो परिभाषा दी है वह असल में उपनिवेशवाद पर लागू होती है । उनके अनुसार साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद का ही एक रूप है । इसके विकास में राजनीतिक , धार्मिक , मानवीय और आर्थिक तत्त्वों का अत्यधिक योगदान होता है। किंतु , जब आर्थिक लाभ के लिए साम्राज्य स्थापित किया जाता है तब वह उपनिवेशवाद का रूप ले लेता है । इस प्रकार , उपनिवेशवाद एक पूर्व अवस्था है , जबकि साम्राज्यवाद पूँजीवाद के फैलाव की अंतिम अवस्था है । फ्रांसीसी विद्वान रेमंड आराँ ( Ramond Aron ) के अनुसार उपनिवेशवाद में शासक तथा देश के अल्पसंख्यक व्यक्ति साम्राज्यवादी सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में उपनिवेशों पर प्रशासन करते हैं । उपनिवेशवाद की विशेषताएँ - उपनिवेशवाद की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ हैं ।
 1. आर्थिक साम्राज्यवाद का विकृत रूप-
 आर्थिक लाभ के लिए जब साम्राज्यवादी व्यवस्था अपनाई जाती है तब वह उपनिवेशवादी व्यवस्था कहलाती है , अर्थात उपनिवेशवाद आर्थिक साम्राज्यवाद का विकृत रूप होता है । 

2. आर्थिक शोषण के लिए प्रशासनिक व्यवस्था - सारे साम्राज्यवादी देश अपने अधीनस्थ देशों में ऐसी शासन - व्यवस्था स्थापित करते हैं जिससे आर्थिक शोषण में सहायता मिल सके । 
3. सांस्कृतिक आधिपत्य- -अपने अधीनस्थ प्रदेशों को काफी समय तक अपने प्रभाव में रखने के लिए विश्व के साम्राज्यवादी देश उनमें शिक्षा और संस्कृति का प्रसार करते हैं ।
 4. वर्ग - विभेद उत्पन्न करना- -अधीनस्थ देशों की सामाजिक व्यवस्था को अपने अनुकूल करने के लिए उपनिवेशवादी राष्ट्र वहाँ वर्ग - विभेद फैलाने का प्रयास करते हैं ।
 5. ' फूट डालो और शासन करो ' की नीति - साम्राज्यवादी अपने अधीनस्थ प्रदेशों की जनता में वैर- -भाव पैदा कर उन्हें आपस में लड़ाकर शासन करता है ।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण 
( Different Phases of British Colonialism ) 

सुविधा की दृष्टि से भारत में उपनिवेशवाद के विकास के काल को हम निम्नलिखित चार चरणों में विभाजित कर सकते हैं ।
 1. प्रथम काल -1600 से 1858 ई ० तक 
2. द्वितीय काल- -1858 से 1909 ई . तक 
3. तृतीय काल -1909 से 1939 ई ० तक 
4. चतुर्थ काल -1939 से 1947 ई ० तक 

प्रथम काल ( 1600 से 1858 ई ० तक ) 
इस काल की प्रमुख विशेषता यह है कि एक ओर इसमें अँगरेजी शासन का प्रारंभ हुआ तो दूसरी ओर 1857 ई ० में प्रसिद्ध भारतीय विद्रोह हुआ । इस काल का अध्ययन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं ।
 1. ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन ( Rule of the East India Company ) --- भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद का प्रारंभ ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना से होता है । भारत की सर्वप्रथम खोज 1498 ई ० में वास्को द गामा ने की । उसके बाद ही डच , फ्रेंच , पुर्तगाली तथा अँगरेज व्यापारियों का भारत - आगमन हुआ । इन लोगों ने भारत से अपना व्यापारिक संबंध बढ़ाना शुरू किया । इसी क्रम में 31 दिसंबर 1600 के दिन इंगलैंड की महारानी एलिजाबेथ से आज्ञा प्राप्त कर भारत के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से ईस्ट इंडिया कंपनी का निर्माण किया गया । अपने प्रारंभिक दिनों में यह कंपनी एक व्यापारिक संस्था थी और इसका संचालन एक संचालक मंडल द्वारा होता था । लेकिन , बाद में कंपनी का उद्देश्य राजनीतिक होने लगा और उसने धीरे - धीरे भारतीय राजनीति में रुचि लेना प्रारंभ किया । चूँकि सम्राट औरंगजेब के देहांतोपरांत भारत में कोई भी केंद्रीय सत्ता नहीं थी और सारा देश छोटे - छोटे राज्यों में विभक्त हो गया था , इसलिए कंपनी ने अपना राजनीतिक क्षेत्र फैलाना प्रारंभ कर दिया । भारत के विभिन्न नरेशों के पारस्परिक झगड़ों में दखल देकर कंपनी ने भारत में अपनी राजसत्ता स्थापित करने का निश्चय कर लिया । 1757 ई ० में प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला के पराजित हो जाने पर भारत के सबसे धनी और घनी आबादीवाले क्षेत्र पर कंपनी का शासन स्थापित हो गया । 
2. रेगुलेटिंग ऐक्ट , 1773 ( Regulating Act , 1773 ) ----1773 ई ० में कंपनी के कार्यों पर नियंत्रण और निगरानी रखने के लिए ब्रिटिश संसद ने एक नियामक कानून पारित किया । इसके द्वारा बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसियों को फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी के अधीन कर दिया गया । फोर्ट विलियम के गवर्नर को भारत में कंपनी के अधीनस्थ समस्त क्षेत्र का गवर्नर - जेनरल बना दिया गया । 
3. 1781 ई0 का संशोधन अधिनियम(Amendment Act , 1781 ) —नियामक कानून द्वारा जो व्यवस्था की गई थी वह कई कारणों से दोषपूर्ण थी । उन दोषों में सुधार की दृष्टि से 1781 ई ० में संशोधन अधिनियम पारित हुआ । इससे गवर्नर - जेनरल की अधिकार - शक्ति में वृद्धि हुई , लेकिन इसके बावजूद कोई सुधार नहीं हो सका ।
 4. पिट्स इंडिया ऐक्ट , 1784 ( Pitt's India Act , 1784 ) -जब संशोधन अधिनियम द्वारा भी कंपनी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हो सका तब 1784 ई ० में ब्रिटिश संसद ने दूसरा अधिनियम पारित किया जिसे ' पिट्स इंडिया ऐवट ' के नाम से पुकारा गया । इस अधिनियम द्वारा गवर्नर - जेनरल को संकटकाल में कार्यकारिणी परिषद के बहुमत की अवहेलना करने का अधिकार प्राप्त हुआ । कार्यकारिणी परिषद के सदस्यों की संख्या 4 से 3 कर दी गई और उच्चतम न्यायालय के कार्यक्षेत्र को और अधिक स्पष्ट कर दिया गया । 
5. चार्टर ऐक्ट , 1793 ( Charter Act , 1793 ) -1793 ई ० में कंपनी के चार्टर की अवधि समाप्त हो गई , इसलिए ब्रिटिश संसद ने प्रथम चार्टर अधिनियम पारित किया जिसे 1793 ई ० का चार्टर ऐक्ट कहते हैं । इस अधिनियम द्वारा कंपनी को भारत में 20 वर्ष आगे के लिए व्यापार करने का एकाधिपत्य प्राप्त हुआ ।
 6. 1813 ई ० का चार्टर ऐक्ट ( Charter Act , 1813 ) -1813 ई ० में पुनः ब्रिटिश पार्लियामेंट को नया अधिनियम पारित करने का अवसर प्राप्त हुआ । इस अधिनियम की दो प्रमुख विशेषताएँ थीं — प्रथमतः यह कि अन्य अंगरेज व्यापारियों को भी भारत में व्यापार करने का अधिकार प्राप्त हुआ और द्वितीयतः ईसाई पादरियों को भारत में धर्मप्रचार की अनुमति प्रदान की गई । 
7. 1833 ई ० का चार्टर ऐक्ट ( Charter Act , 1833 ) —इस अधिनियम द्वारा भारतीय शासन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए । सबसे क्रांतिकारी परिवर्तन यह हुआ कि भारत में कंपनी के व्यापारिक अधिकारों की समाप्ति हो गई और यह निर्णय लिया गया कि अगले 50 वर्षों तक भारतीय इलाकों पर कंपनी का शासन रहेगा और इन अधिकारों को कंपनी ब्रिटिश सम्राट , उसके उत्तराधिकारी और भारत सरकार की सेवा में अमानत के रूप में रखेगी । इसी अधिनियम द्वारा सर्वप्रथम भारत में अंगरेजी भाषा शिक्षा का माध्यम बनाई गई । 
8. 1853 ई . का चार्टर ऐक्ट ( Charter Act , 1853 ) -1853 ई ० के चार्टर अधिनियम द्वारा कंपनी का चार्टर तो नया कर दिया गया , लेकिन उसकी अवधि के संबंध में यह उद्घोषणा की गई कि जबतक ब्रिटिश संसद कोई दूसरी व्यवस्था न कर ले तबतक कंपनी का शासन रहेगा । कंपनी के संचालकों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई जिसमें 6 सदस्य ब्रिटिश सम्राज्ञी द्वारा मनोनीत होने लगे । विधायी कार्यों के लिए गवर्नर - जेनरल की परिषद में और सदस्य बढ़ा दिए गए । इस अधिनियम द्वारा भारत की पहली व्यवस्थापिका का निर्माण हुआ और शासकीय सेवाओं में भर्ती प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा नियंत्रण - सभा के नियम के अंतर्गत होने लगी ।

 द्वितीय काल ( 1858 से 1909 ई . तक ) 

इसे विकेंद्रीकरण का काल भी कहते हैं । संचार साधनों में वृद्धि , अँगरेजी शिक्षा का विस्तार , पाश्चात्य विचारधारा इत्यादि महत्त्वपूर्ण कारणों ने भारत में ब्रिटिश शासन को विकेंद्रित करने की प्रक्रिया का प्रारंभ कर दिया । चूँकि 1858 ई ० के भारत सरकार अधिनियम द्वारा कंपनी के शासन का अंत कर दिया गया , इसलिए भारतीय शासन की बागडोर ब्रिटिश सम्राट के हाथ में दे दी गई । इस काल का अध्ययन हम कई शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं 
1. महारानी विक्टोरिया की घोषणा ( Queen Victoria's Proclamation ) -
1 नवंबर 1858 को लॉर्ड कैनिंग ने इलाहाबाद के एक दरबार में भारत के लोगों तथा शासकों के नाम महारानी विक्टोरिया की राजकीय  घोषणा पढ़ी । यह घोषणा इस प्रकार थी- " परमपिता परमेश्वर की अनुकंपा से जब देश में आंतरिक शांति स्थापित हो जाएगी , तो हमारी हार्दिक इच्छा है कि भारत के सर्वांगीण विकास के लिए फिर से प्रयत्न किया जाए तथा जनता के कल्याण के लिए सार्वजनिक सुविधाएँ प्रदान की जाएँ । सरकार का प्रबंध सारी जनता के हित की भावना से किया जाए । जनता का हित ही हमारा हित है , उसकी संतुष्टि में ही हम अपनी सुरक्षा और उसकी कृतज्ञता में ही अपना गौरव अनुभव करें । " सुंदर भाषा तथा उच्च आश्वासनों के कारण महारानी विक्टोरिया की घोषणा का स्वागत समस्त भारत में हुआ । इस घोषणा ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद को एक नया रूप दिया जिसे टी वी मैकाले ने ' दयालु निरंकुशवाद ' ( benevolent despotism ) की संज्ञा दी । 2. 1861 ईका भारतीय परिषद अधिनियम ( The Indian Council Act , 1861 ) -इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार ने सर्वप्रथम बंबई और मद्रास के प्रांतों में फिर से विधानपरिषदें स्थापित की । यह भी व्यवस्था की गई कि भारत में कानून बनाने के कार्य में गवर्नर - जेनरल के सहायतार्थ उसकी कौसिल में सदस्यों की संख्या बढ़ा दी जाए जो 6 से कम और 12 से अधिक न हो । इसमें कम से कम आधे सदस्य गैरसरकारी हो जो अँगरेज और भारतीय दोनों हो सकते थे । संकटकाल में गवर्नर - जेनरल को अध्यादेश निकालने का भी अधिकार प्राप्त हुआ । उसे यह भी अधिकार मिला कि वह बंगाल में विधायिका सभा की स्थापना करे । 
3. 1892 ई ० का भारतीय परिषद अधिनियम ( The Indian Council Act . 1892 ) -1858 ई ० के बाद तीन दशकों में भारत में बड़े पैमाने पर सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना का जो विकास हुआ , उसी से विवश होकर ब्रिटिश सरकार ने 1892 ई ० में भारतीय परिषद अधिनियम पारित किया । इसका उद्देश्य विधेयक - निर्माण में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करना था ।
 4. मॉलें - मिण्टो सुधार अधिनियम , 1909 ( Morley - Minto Reforms Act , 1909 ) बीतने के साथ - साथ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उग्रवादी राजनीति का प्रारंभ हो गया । ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने नारा बुलंद किया कि स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे । इसीलिए बढ़ते आंदोलन को दबाने के उद्देश्य से 1909 ई ० का भारतीय परिषद अधिनियम पारित किया गया । इस अधिनियम में केंद्रीय परिषद का विस्तार , प्रांतीय विधानपरिषदों का विस्तार , कार्यकारिणी परिषद में भारतीयों की नियुक्ति आदि बातों को लाया गया । 

तृतीय काल ( 1909 से 1939 ई ० तक ) 

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का तृतीय युग 1909 से 1939 ई . तक रहा । इस काल की यह विशेषता थी कि इसमें ब्रिटिश शासक सहयोग की नीति के साथ - साथ दमन की नीति भी अपनाए रहे । ब्रिटिश सरकार की यह नीति कानून के माध्यम से लागू की जाती रही । उदाहरण के लिए अस्त्र - शस्त्र अधिनियम ( Arms Act ) , वर्नाक्यूलर प्रेस अधिनियम ( Vernacular Press Act ) , कलकत्ता निगम अधिनियम , भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम तथा सरकारी रहस्य अधिनियम इत्यादि को लिया जा सकता है । दमन की इस नीति के साथ - साथ अँगरेजों ने अपने उपनिवेशवाद को बचाए रखने की दृष्टि से ' फूट डालो और शासन करो ' ( divide and rule ) की नीति का भी अवलंबन किया । मॉर्ले - मिण्टो योजना ने ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति को और अधिक स्पष्ट कर दिया । 1914 ई ० के विश्वयुद्ध में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने भारतीय समस्या को नए दृष्टिकोण से देखा । ब्रिटिश सरकार ने भारतीय प्रशासन संबंधी एक नई नीति की उद्घोषणा 20 अगस्त 1917 को की । इस उद्घोषणा में शासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों के अधिकाधिक सहयोग पर समस्त देश में स्वशासित संस्थाओं के विकास का विचार प्रकट किया गया था । इस घोषणा को कार्यान्वित करने के उद्देश्य से भारत सचिव मांटेग्यू तथा गवर्नर - जेनरल चेम्सफोर्ड ने एक प्रतिवेदन तैयार किया । इसी प्रतिवेदन के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने ' भारत सरकार अधिनियम , 1919 ' पारित किया । इसीलिए कुछ लोग इस काल को उत्तरदायी शासन के विकास का काल भी कहते हैं , क्योंकि इस अधिनियम द्वारा पहली बार भारतीयों के हाथ में वास्तविक सत्ता के हस्तांतरण का कार्य प्रारंभ हुआ। केंद्र की द्विसदनात्मक व्यवस्था तथा प्रांतों में द्वैध शासन की व्यवस्थाएँ इस अधिनियम की अनोखी विशेषताएँ थीं । इस सुधार - व्यवस्था से भी भारतीय संतुष्ट नहीं हो सके और इस प्रकार औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ भारत में सुधार - संबंधी आंदोलन चलते रहे ; साथ - साथ अंगरेजों की दमन की नीति भी चलती रही । 1918 ई ० में रॉलट कानून ( Rowlatt Act ) पारित किया गया। यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास का एक काला कानून था । 1919 ई ० में अमृतसर में जालियाँवाला बाग हत्याकांड हुआ तथा महात्मा गाँधी के नेतृत्व में संचालित 1920-22 के असहयोग आंदोलन को भी कुचल दिया गया । 1930-32 के सविनय अवज्ञा आंदोलन को दबाया गया तथा हजारों लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया । दमन की इस नीति के साथ - साथ सांविधानिक सुधारों की ओर भी ब्रिटिश सरकार का ध्यान था । 1928 ई . में साइमन कमीशन भारत आया । 1930 , 1931 और 1932 ई ० में क्रमशः पहला , दूसरा और तीसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ । लेकिन , सारे सुधार के प्रयास असफल होते गए और भारत में राष्ट्रीय आंदोलन जोर पकड़ता गया । भारतीयों ने अब पूर्ण स्वतंत्रता की मांग शुरू कर दी । सांविधानिक सुधारों के साथ - साथ ब्रिटिश सरकार अपनी पुरानी औपनिवेशिक नीति ' फूट डालो और शासन करो ' भी चलाती रही । अंगरेजों ने भारतीय मुसलमानों को अलग राजनीतिक अस्तित्व प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया । 1929 ई ० के नेहरू रिपोर्ट के जवान में मुहम्मद अली जिन्ना ने चौदह - सूत्री कार्यक्रम पेश किया । 1932 ई ० के सांप्रदायिक निर्णय ने भारत में सांप्रदायिक राजनीति को एक नया मोड़ दिया । इसी संदर्भ में 1935 ई ० का भारत सरकार अधिनियम पारित किया गया । परिणामस्वरूप , 1937 ई ० में निर्वाचन कराए गए और प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना हुई । 1939 ई ० के द्वितीय विश्वयुद्ध में बिना भारतीय नेताओं से राय लिए जब गवर्नर - जेनरल ने भारत की ओर से युद्ध की उद्घोषणा कर दी तब प्रतिक्रियावश कमिसी मंत्रिमंडलों ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया ।

 चतुर्थ काल ( 1939 से 1947 ई . तक ) 

यह भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का अंतिम चरण था । इसे ' फूट डालो और छोड़ चलो ' की नीति का युग भी कहा जा सकता है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारतीय नेताओं तथा ब्रिटिश सरकार के बीच मतभेद बढ़ता गया । परिस्थितियों के विपरीत होने पर वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने यह प्रस्ताव पेश किया कि युद्ध समाप्त होने के तुरंत बाद भारत को औपनिवेशिक स्थिति प्रदान की जाएगी । फिर भी , स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ता जा रहा था । परिणामस्वरूप , ब्रिटिश सरकार ने सर स्टैफोर्ड क्रिप्स को भारत में उत्पन्न सांविधानिक गतिरोध दूर करने के उद्देश्य से भेजा । क्रिप्स ने एक योजना के माध्यम से भारतीयों को यह आश्वासन दिया कि युद्ध के बाद भारत को औपनिवेशिक साम्राज्य सौंप दिया जाएगा । लेकिन , भारतीय नेताओं ने इस योजना का विरोध किया। महात्मा गाँधी ने कहा , " यह योजना दिवालिया बैंक के नाम से आगामी तारीख का चेक है । 

" ' भारत छोड़ो आंदोलन , 1942 ( Quit India ' Movement , 1942 ) 

चूंकि क्रिप्स योजना असफल हो चुकी थी , इसलिए भारतीय वातावरण पुनः अशांत हो उठा । समस्त भारत में अँगरेजों के विरुद्ध एक क्रांति की लहर उठ गई । 8 अगस्त 1942 के दिन बंबई में अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी ने अंगरेजो ! भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित किया । काँग्रेस के आह्वान पर समस्त देश में क्रांति और विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ी । सारा भारत कानून - विहीन हो गया और पूर्णतः अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई । अँगरेजों ने महात्मा गाँधी सहित सभी भारतीय नेताओं को कैद कर लिया । इस आंदोलन ने ब्रिटिश उपनिवेश को जड़ से झकझोर दिया । अतएव अंगरेजों ने यह समझ लिया कि भारतवासियों की स्वतंत्रता की मांग अधिक दिनों तक स्थगित नहीं रखी जा सकती । इसलिए उन्होंने भारतीय नेताओं के साथ समझौता करना आवश्यक समझा । 1945 ई ० में लॉर्ड वैवेल ने स्वतंत्रता - संबंधी अपनी योजना प्रस्तुत की जिसे भारतीय नेताओं ने अस्वीकार कर दिया । भारत में बढ़ रहे आंदोलन तथा अंगरेजों के प्रति उपनाई गई नीति , द्वितीय विश्वयुद्ध का भार और भारतीय उपनिवेश पर व्यय आदि घटनाओं ने अंगरेजों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि उन्हें भारत छोड़ देने में ही लाभ है । दूसरी तरफ , अँगरेजों का उद्देश्य भारत को एक कमजोर राष्ट्र के रूप में छोड़ना था । अपनी इस पूर्व योजना के तहत उन्होंने मुस्लिम लीग को पाकिस्तान बनाने के लिए प्रोत्साहित किया । मुस्लिम लीग और उसके नेताओं की मांगों को वे समझौते का आधार बनाते रहे । मुस्लिम लीग ने 1946 ई ० की मंत्रिमंडल मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया । अंततः 1947 ई ० को माउंटबेटन योजना भारत को दो देशों में बाँटने में सफल हुई और 15 अगस्त 1947 को अंगरेजों का भारत में ब्रिटिश उपनिवेश समाप्त हो गया ।

 राष्ट्रीय आंदोलन का अभिप्राय और परिभाषा ( ( Meaning and Definition of National Movement )
 19 वीं शताब्दी के आरंभ में भारत की गणना विश्व के उन देशों में होती थी जहाँ राष्ट्रीय जागरण की संभावनाएँ प्रायः गौण समझी जाती थीं । भारत का विशाल जनसमुदाय लगभग सभी विषयों पर विभाजित था। यहां यह उल्लेखनीय है कि कुछ विशेष उपनिवेशवादी अपनी परिभाषा के अनुसार, भारत को एक राष्ट्र मानते ही नहीं थे। सर जाॅन स्ट्रीची  ने स्पष्ट शब्दों में बताया कि भारत के सम्बन्ध  में या भारत समझ लेना आवश्यक है कि " यह ना कोई देश है और ना कभी था -- यहाँ यूरोपीय धाराओं के अनुकूल भौतिक राजनीतिक सामाजिक और धार्मिक एकता है ही नहीं ।"